गुरुवार, 6 मई 2010

काश!





काफिला मेरा भी होता, आज तब मंजिल के पास,
भोर होते चला होता, मंजिल की जानिब मै काश!

जज्बातों से क्या मिला, मंजिल मिली न रास्ता,
आँखों ने नींदे खोई और हर पल रहा दिल उदास,

एक परिंदा, एक दरिंदा उड़ रहे हैं, साथ साथ,
एक को जीने की ख्वाहिश एक को लहू की प्यास

हिम्मत कर और एक बाजी खेल जाएँ चल 'पवन'
हार जाने से बदतर है, हार मानने का एहसास।

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