बुधवार, 26 मई 2010

अवकाश

सबसे मिलकर
एक बार फिर से जाना है/
अपनी जिज्ञासा का उदगम मुझमे,
समाधान भी मुझमे,
और मुझमे ही ठिकाना है/
जीवन की राह पर
ऐडा टेढ़ा चलना रोमांच बढ़ाता  है/
पर कोल्हू का बैल
आगे कब बढ़ता है?
बस चलता जाता है/
पाँव जमी पर रक्खें,
और मुट्ठी में आकाश ले लें/
चलो खुद से मिल लें और
दुनिया से अवकाश ले लें/

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर पवन जी.....
    सरल शब्दों में बड़ी प्रेरणादायी कविता लिखी है आपने...
    बधाई.

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  2. खूबसूरती से गढा है जिंदगी का फलसफा

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  3. सार्थक शब्दों से परिपूर्ण रचना।

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  4. हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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