बुधवार, 25 अगस्त 2010

चिरायु चाहत

चाहता था और चाहता हूँ अभी तक
ख्यालों में तस्वीर बनाता हूँ अभी तक

वह पराया गीत है अब , जानता हूँ,
तन्हाइयों में गुनगुनाता हूँ अभी तक.

दिल लगाने क़ी खता एक बार की थी,
सजा मगर हर रोज पाता हूँ अभी तक,

कोई चिड़िया पेड़ पर जब घोसला बनाती है,
तिनके आसपास, रखके आता हूँ अभी तक.

चाहता था और चाहता हूँ अभी तक......





शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

विरह वेदना

देखकर
पूर्णमासी के चाँद की ओर/
और विरह की सम्भावना
का पकड़कर छोर /
तुमने कहा था
कि चाँद का यह रूप
तुम्हे मेरी उदिग्नता की खबर देगा/
और तुम्हारा प्यार
मेरे सब जख्म भर देगा/
लेकिन दूरियों के 
बदले समीकरण में,
चाँद जब तुम्हारी छत से
चलकर मेरे पास आता है,/
दो घडी ओझल होकर
संकेत से मुझे बताता है /
कि तुम लजाकर
मेरा प्रणय निवेदन
स्वीकार कर रही थी/
धवल चांदनी सी बिखरकर
मुझे प्यार कर रही थी/
हर शाम
चांदनी की आहट होते ही
मै खुद से बाहर निकल आता हूँ/
मुस्कान बिखेरता हूँ,
दर्द छिपाता हूँ/
मै नहीं समझता
कि यह मेरी विरह वेदना
जान पाता है/
प्रिय!
यह डाकिया
मेरे बारे में क्या बताता है? 

मंगलवार, 22 जून 2010

अब नहीं और..

हर सुबह
दौड़ की बेला,
ज्यों
जाना हो
क्षितिज के छोर/
आशियाना
बदल बदल कर
थक गया हूँ,
दिल कहता है,
बहुत हुआ,
अब नहीं और/


लगता है कि
पूर्व जनम में,
रहे होंगे
ऐसे संस्कार/
किसी वृक्ष की
साख तोड़ ली,
कोई घोंसला
दिया उजार/
तितली के
पर फाड़े होंगे,
किसी के जख्म
उघाड़े होंगे,
भाया नहीं होगा ,
 नाचता मोर/
दिल कहता है,
बहुत हुआ,
अब नहीं और/

 दाना चुगती
गिलहरी को,
पत्थर कभी
मारा होगा/
वृक्ष पर
टंगे घोंसले से
तिनको को कभी
उतारा होगा/
घर लाये थे
जो मृग शावक/
जननी से विछोह,
सदैव पीड़ादायक/
बन गया था
ममता का चोर /
दिल कहता है,
बहुत हुआ,
अब नहीं और/


बस भी करो
प्रभु मेरे,
मन को मेरे
विश्राम दे दो/
बचपन को 
माफ़ भी कर दो 
नासमझी को
अभयदान दे दो/
या  मुझको 
कर दो संवेदनहीन /
या जीने दो  
उत्सव में लीन / 
मन नाचे
हो तन विभोर/
दिल कहता है,
बहुत हुआ,
अब नहीं और/



बुधवार, 16 जून 2010

आकांक्षाए और जीवन

आदमी के लिए
जरुरी है;
खाने को दाल रोटी,
पहनने को कपडा,
रहने को मकान
और
जीने  के लिए प्रेम,
पर
कष्टमय  है
जीवन
क्योंकि
प्रेम विहीन  है
और भी
सब कुछ पाने की
लालसा में
और जानने को  
यह  सच
अपने अनुभव से /

रविवार, 13 जून 2010

जीवन..... पुनर्निर्माण के दौराहे पर

                                                      पिछली पोस्ट से लगातार (५)
खट्टी मीठी जिंदगी के
टेढ़े मेढ़े रास्तों पर,
मीठे मीठे सपनो की
बात ही न्यारी है/
जिंदगी के साथ साथ
जनम लेते हैं सपने,
सपनो के साथ चलती
जिंदगी हमारी है/

सत्तर की वय  से आगे,
सपनो से हम भागें,
जिंदगी ही सपने
की तरह गुजर गयी /
बोझ सी लगने लगी 
अपनी ही काया जैसे,
जीने की चाह भी
मन से उतर गई/
सब इंतज़ार में हैं,
अब टूटी, तब फूटी,
काया की गागर
लबालब भर गई/
आंखे खुली रह गई
सपनो में खोई सी,
सपने मरे नहीं
लो काया मर गई/
दो दिल फिर मिलेंगे,
फिर होगा एक जनम
सपनो का सफ़र
रुका नहीं जारी है....
खट्टी मीठी जिंदगी के
टेढ़े मेढ़े रास्तों पर,
मीठे मीठे सपनो की
बात ही न्यारी है/

शनिवार, 12 जून 2010

जीवन .. जिम्मेदारियों के बोझ तले

                                           (४) ......पिछली पोस्ट से लगातार
खट्टी मीठी जिंदगी के
टेढ़े मेढ़े रास्तों पर,
मीठे मीठे सपनो की
बात ही न्यारी है/
जिंदगी के साथ साथ
जनम लेते हैं सपने,
सपनो के साथ चलती
जिंदगी हमारी है/


पचास की आई वय,
सपनो की टूटी लय,
जिम्मेदारिया खड़ी हैं
बाहें फैलाये/
लोगों के दरवाजे पर
दस्तक दे रहा है बाप,
बेटी बड़ी हो गई है,
लड़का बताएं /
बेटा बहु अपनी ही
दुनिया के हो गए है,
कोई उनसे कहे,  
बाप का हाथ बटाएँ /
रिश्तो का घरोंदा
टूटता सा दीखता है,
अपने ही हो गए,
कितने पराये/
जीवन के रंग
फीके होते दीखते हैं,
जिम्मेदारियों का बोझ,
जिन्दगी पर भारी है/
खट्टी मीठी जिंदगी के
टेढ़े मेढ़े रास्तों पर,
मीठे मीठे सपनो की
बात ही न्यारी है...





शुक्रवार, 11 जून 2010

जीवन... यौवन की दहलीज पर

                                            (३).... पिछली पोस्ट से लगातार
खट्टी मीठी जिंदगी के
टेढ़े मेढ़े रास्तों पर,
मीठे मीठे सपनो की
बात ही न्यारी है/
जिंदगी के साथ साथ
जनम लेते हैं सपने,
सपनो के साथ चलती
जिंदगी हमारी है/


आया सौलहवा बसंत,
लाया सपने अनंत,
सपने जैसे
सतरंगी हो जाते है/
कोयल की कूक  
आमंत्रण लगती है  ,
फूल इशारे देकर
भँवरे को बुलाते है/
तन मन में मदहोशी
सी छा जाती है ,
सपनो में हँसते हैं,
सपनो में गाते हैं/
सपनो में चाँद तारे
तोड़ लाते हैं कभी,
कभी चाँद को
अपने पहलु में सुलाते हैं/
घोड़े पर सवार होकर
जाते हैं  सपनो के देश ,
सपनो में आती 
एक राजकुमारी  है/
खट्टी मीठी जिंदगी के
टेढ़े मेढ़े रास्तों पर,
मीठे मीठे सपनो की
बात ही न्यारी है/.....








गुरुवार, 10 जून 2010

बचपन ...स्कूल की तरफ

                                                (२)   ......पिछली पोस्ट से लगातार  


पांचवा बरस जो आया,
माँ ने बस्ता सजाया,
कहती है बेटा
स्कूल भी जाना है/
पढना है, लिखना है,
अच्छा बेटा बनाना है,
पढ़े लिखे लोगों की,
जेब में ज़माना है/
जिम्मेदारिया बताती माँ,
सपने सजाती माँ,
"बेटा तुझे माँ को
परदेस घुमाना है"/
बेटा कहता है,
माँ कैसे छोड़ जाऊ तुझे,
माँ डांटती है,
यह कैसा बहाना है?
बस्ते के बहाने
कंधो की परीक्षा है,
कन्धों पर बोझ डालने की
तैयारी है/
खट्टी मीठी जिंदगी के
टेढ़े मेढ़े रास्तों पर,
मीठे मीठे सपनो की
बात ही न्यारी है/
                                                       ...........यौवन  अगली  पोस्ट  में  

बचपन... माँ की गोद में

खट्टी मीठी जिंदगी के
टेढ़े मेढ़े रास्तों पर,
मीठे मीठे सपनो की
बात ही न्यारी है/
जिंदगी के साथ साथ
जनम लेते हैं सपने,
सपनो के साथ चलती
जिंदगी हमारी है/

जीवन का पहला साल,
सपनो से मालामाल,
माँ की गोद मीठी
मीठी लोरिया सुनाती है/
बच्चे के साथ,
बच्चा बन जाती है माँ,
हंसती है, गाती है,
कभी तुतलाती है /
दुसरे बरस में
धुल देती है न्यौता ,
खेलने को अपने
पास बुलाती है/
तीसरे बरस में
चोटी गुंथती है माँ,
माथे पर काजल का
टीका लगाती है/
हंसा नहीं रोया नहीं,
खाया नहीं,सोया नहीं,
क्या क्या कहके
माँ ने नजर उतारी है/
खट्टी मीठी जिंदगी के
टेढ़े मेढ़े रास्तों पर
मीठे मीठे सपनो की
बात ही न्यारी है.....

                                        ......जारी

मंगलवार, 1 जून 2010

आदमी भला सा लगता है.

जिसके चारों तरफ एक जलजला सा लगता है/
वक़्त बुरा है मगर आदमी भला सा लगता है/

हँसते हँसते उड़ा देता है दुनिया भर के गम,
देखने में यूँ बड़ा वह मनचला सा लगता है/

जिन्दगी किस मोड़ पर क्या रंग बदले कौन कहे,
पत्थर भी कभी कभी गुड का डला सा लगता है/

गम से घिरा है फिर भी कमल के जैसा है,
इसका बचपन दुश्वारियों में पला सा लगता है/

वह अमीरे शहर तो बस अपने साथ जीता है,
खुशनसीब है जो सबसे मिला-जुला सा लगता है/

पवन धीमान
+50938050683

रविवार, 30 मई 2010

कमीज

उड़ने लगा है रंग,
दिखने लगे हैं रेशे,
और रंगत खोने लगी है/
मेरी यह कमीज
अब पुरानी होने लगी है/
वह दूसरी  
जो मेरे मिजाज से
कम मेल खाती थी/
इसलिए यदा कदा ही
मेरे साथ बाहर जाती थी/
अब मेरे मन को
भाने लगी है/
इस कमीज से ज्यादा
खूबसूरत नजर आने लगी है/
वक़्त के साथ  अक्सर,   
स्नेह सम्बन्ध खो जाता है /
जिसके बिना
कभी पल नहीं कटता,
कभी सदियों सा दूर हो जाता है  /
मै इस कमीज से
वफ़ा का रिश्ता निभाऊंगा/
इसे हमेशा 
अपने वार्डरोब में सजाऊंगा/
आखिर दोनों सच्चाई हैं,
रिश्तों की अक्षुनता  भी
ओर वक़्त के साथ ढलना भी/
किसी का कमीज से रिश्ता बनाना,
किसी का रिश्तों को
कमीज की तरह बदलना भी /

पवन धीमान
+50938050683

गुरुवार, 27 मई 2010

बहुत दूर है...

यह  कैसी सजा यह कैसा दस्तूर है/
दिल है उसके पास जो मुझसे बहुत दूर है/

मैंने ना देखा उसे, उसने ना देखा मुझे,
उसके मेरे चर्चे इस शहर में मशहूर हैं/

उसकी तस्वीर से पूछा मैंने एक दिन,
मैंने चाहा तुझे, क्या तुझे यह मंजूर है?

पर नजर खामोश उसकी, लब खामोश,
पता नहीं इकरार है, या हुस्न पर मगरूर है/

शायद हमें सताने की यह अदा है उनकी,
वर्ना दिल में इतनी चाह, उनके भी जरूर है/

नहीं गुनाहगार मै, ना खता उसकी 'पवन'
ये उसके हुस्न और मेरे इश्क का कसूर है/

शहरी

दिल्ली-हरिद्वार राजमार्ग को
पार करने से पहले  वह बच्चा
गाडी गुजरने का इंतज़ार करता था/
फिर सिर पर गठरी रखे हुए
जैसे ही सड़क पार करता था/
वह बुदबुदाता था, कि यह शहर वाले 
अलसुबह कैसे जाग पाते हैं?
मौका मिलते ही क्यों
अपना शहर छोड़कर भाग आते हैं/
पर अब शहरी आदमी का दर्द
उसे समझ आता है/
जब वातानुकूलित कमरों में नहीं,
अपितु वृक्ष क़ी छांव  तले
उसका तन, मन विश्रांति पाता है/





बुधवार, 26 मई 2010

अवकाश

सबसे मिलकर
एक बार फिर से जाना है/
अपनी जिज्ञासा का उदगम मुझमे,
समाधान भी मुझमे,
और मुझमे ही ठिकाना है/
जीवन की राह पर
ऐडा टेढ़ा चलना रोमांच बढ़ाता  है/
पर कोल्हू का बैल
आगे कब बढ़ता है?
बस चलता जाता है/
पाँव जमी पर रक्खें,
और मुट्ठी में आकाश ले लें/
चलो खुद से मिल लें और
दुनिया से अवकाश ले लें/

बुधवार, 19 मई 2010

'फ़ुर्र'

शुक्रवार की देर रात मै दिल्ली से घर लौटा । सुबह बरामदे मे इधर उधर पड़े तिनको और रोशनदान मे निर्माणाधीन घोंसले ने बरबस ही ध्यान खींचा । दूसरे कोने पर बैठी एक चिड़िया माहोल का जायजा ले रही थी। संभवत: हमारी प्रतिक्रिया के प्रति वह आशंकित थी। मैंने तिनके बटोरकर घोसले के पास रख दिये और अपने दैनिक कार्यों मे व्यस्त हो गया ।


घर मे नए प्राणी का आगमन हमे रुचिकर लगा। कुछ दिनो मे हम तीनों प्राणी एक दूसरे के स्वभाव से परिचित हो गए । मुझे घोसले के आस पास बिखरे तिनके बटोरने की, गृह स्वामिनी को दाना पानी रखने की और ..... को निश्चित होकर घर मे और यदा-कदा हमारे कंधो पर फुदकने की आदत हो गई। पत्नी ने उसका नामकरण किया - 'फ़ुर्र'.

बच्चो और आगुन्तकों के लिए 'फ़ुर्र' की निश्चिंतता कोतूहुल का विषय थी और हमारे लिए वह हमारे परिवार का अभिन्न अंग । घर की रंगाई पुताई के दौरान 'फ़ुर्र' के घोंसले को कोई हानि न पहुँचे इसका विशेष ख्याल रखा गया।

कुछ समय बाद मेरा स्थानांतरण हो गया। धान की रोपाई के वक्त हम अपना बोरिया बिस्तर समेटकर नई दिशाओं की ओर चल पड़े। विकास प्रक्रिया मे धान को एक खेत से उखाड़कर दूसरे खेत मे रोपना लाजिमी है, लेकिन उखाड़ने और लगाने की प्रक्रिया के दौरान की पीड़ा को एक नव विवाहिता या फिर स्थानांतरणाधीन कर्मचारी से बेहतर भला कौन समझ सकता है?

नव तैनाती स्थल की फिज़ाएँ दिल्ली से बहुत अलग थी । आतंकवाद चरम पर था। भाड़े के रक्त पिपासु आतंकवादी स्थानीय देशभक्त जनता के नर संहार और सुरक्षा बलों के शिविर पर कायराना हमले को आजादी की जंग कहते। धरती के स्वर्ग की मासूमियत धमाको मे कहीं गुम हो गई थी। जिंदगी संगीनों के साये मे थी । नयी परिस्थितियों से सामंजस्य बिताने मे कुछ वक्त लगा, लेकिन मानव स्वभाव के अनुरूप अंतत ज़िंदगी पटरी पर दौड़ने लगी।

लगभग चार माह बाद पारिवारिक विवाहोत्सव मे सम्मिलित होने के लिए हम घर लौटे तो घर मे कुछ अधूरा सा लगा। घोसला यथावत था , लेकिन उसमे जीवन का स्पंदन नहीं था । 'फ़ुर्र' की परिचित सी चहलक़दमी कहीं दिखाई नहीं दे रही थी । घर के अंदर पड़े पुराने अख़बार की सुर्खियाँ थी - " अधेड़ पड़ोसी द्वारा अबोध मासूम बच्ची की न्रशंस  हत्या "। 'फ़ुर्र' की निश्चिंतता ने उसे किसी बिलाव का ग्रास न बना दिया हो , इस आशंका से मन द्रवित हो उठा।

मै खुद को समझाता हूँ कि अकेलेपन से उकताकर उसने घर बदल लिया होगा। एक दिन 'फ़ुर्र' के परिचित कदम अपने परित्यक्त नीड़ कि और लोटेंगे, इसी प्रतीक्षा मे हूँ।

सोमवार, 17 मई 2010

चलो किसी का दर्द बाँट लें....

रिश्ते नातों के जंगल मे,
भटके हैं,लेकिन क्या पाये?
चलो किसी का दर्द बाँट लें ,
चलो किसी को गले लगाएं ,


बचपन का था खूब जमाना,
कच्ची छत और बैल पुराना,
मट्ठा,गुड और मकई की रोटी,
और पैदल स्कूल को जाना,
छूटे सारे संगी साथी,
अपने थे जो हुए पराये,
चलो किसी का दर्द ,,,,


जब आई अल्हड़ जवानी,
दिल अपना और प्रीत बेगानी,
आम की साखें, खुद से बातें,
भीगी यादें, बरसात का पानी,
साथ भी छूटा, ख्वाब भी टूटा,
अपनों ने कैसे बिसराए,
चलो किसी का दर्द ,,,,,


अब मै हूँ और मेरी तन्हाई,
काम मिला पहचान भी पाई,
चाँद माँगते बच्चे के मानिंद,
खुशियाँ लेकिन रही पराई,
सपनों मे आता है वो बचपन,
जो गिरता पड़ता दौड़ा जाये,
चलो किसी का दर्द बाँट लें,
चलो किसी को गले लगाएं ।

गुरुवार, 13 मई 2010

...महसूस किया है मैंने.


 Destructed President Palace after earthquake in Haiti


संजीदगी से जिन्दगी को जब जिया है मैंने,
खुद को बेबस बड़ा, महसूस किया है मैंने.

ताश के पत्तों सा देखा है ढहते महलों को,
बस्तियों को मरघट होते देख लिया है मैंने.

होश में चुभते हैं, दुनिया के कई तौर तरीके,
चैन का जाम मदहोशी में ही पिया है मैंने.


रौशनी देगा, बुझेगा या जलाएगा सब कुछ,
तुफानो में जलता, रख छोड़ा 'दिया' है मैंने.


 दरिया की मर्जी पर, छोड़ा जबसे  कश्ती को,
जिन्दगी को तब 'पवन' भरपूर जिया है मैंने.

रविवार, 9 मई 2010

''प्रेम प्रस्ताव''



दिल  से  लिखी गई
और उम्मीद से भेजी  गई
कविता पर,
नाकाम प्रेमी ने प्रशंसा पाई,
" शब्द संयोजन अच्छा है,
लिखते रहो भाई."

बारिश


कहीं टूटे पत्ते ,
कहीं बिखरे पुष्प,
कहीं कलियों का
स्नान है .
यह बारिश भी,
किसी के लिए जीवन,
किसी के लिए
अंत का फरमान है.

आपदा ( हैती )

चंद पलों का जलजला ,
और फिर ठहराव
अनथक चीखें
उजड़े हुए गाँव।
जीवन के लिए याचनारत
आधी दबी देह
कहीं शिशु की क्षत देह पर
क्रंदन रत नेह।
कहीं घर से गृहणी छिनी
कहीं बच्चो से बाप
प्रभु यह कैसी लीला
यह कैसा संताप?
जीवन तुम्हारे लिए
रंगमंच है परिहास है,
पर हम कठपुतलियों में
संवेदना है, एहसास है।
अगर प्रेम हमारी
कमजोरी है, भूल है
तो प्रेमविहीन जग
अर्थहीन है , निर्मूल है।
तुम अपना खेल खेलो प्रभु
और हम अपना
तुम विध्वंश रचो
और हम सुहाना सपना ।
तुम जितना उजाड़ोगे ,
हम फिर से घर बनायेंगे
जीवन की सार्थकता
हम इसी संघर्ष में पायेंगे।






शनिवार, 8 मई 2010

तन्हाईयाँ

तुमसे अब दर्दे सुखन आबाद है,
तुम नहीं हो तो तुम्हारी याद है।


रात की तन्हाईयाँ कुछ इस तरह
एक परिंदा और सौ  सय्याद हैं।


तुम्हारे बिन दुनिया अधूरी है मेरी,
तुम अगर हो, ख़ुशी है हर आह्लाद है।


हाँ मुझे मालूम है रस्मो- रिवाज
रब का दर पर, तेरे घर के बाद है।


प्रेम 'पवन' किसी तप से कम कहाँ है,
चैन की आहुति है, तड़फ का प्रसाद है।





शुक्रवार, 7 मई 2010

"रक्त सम्बन्ध''

मै डेढ़ बजे तक आपके पास पहुँच जाऊंगा, चिंता मत करो। इश्वर सब ठीक करेंगे। मोबाइल कान से हटाते ही अशोक ने हिसाब लगाया। 'अनुपम बस स्टॉप' तक दस मिनट , बस में एक घंटा और आगे पंद्रह मिनट। कुल मिलकर डेढ़ घंटा। अभी साधे ग्यारह बजे हैं। आधे घंटे में चार लोगों का खाना बनाने के लिए पत्नी से कहकर वह चारपाई पर लेट गया।


"किसका फ़ोन था? पत्नी ने आटा गूंथते हुए उत्सुकता प्रकट की।


" मेरे बचपन के साथी तरुण का। उसकी माताजी बीमार हैं और अस्पताल में भर्ती हैं। तरुण को गत दिनों पीलिया हुआ था और उसकी बहन में डाक्टरों ने खून की कमी बताई है। इसलिए वे दोनों रक्तदान नहीं कर सके। खून की तुरंत आवश्यकता है। "


" आपने अभी कुछ दिनों पहले ही रक्तदान किया है। दो दिन से हल्का ज्वर भी है। मै नहीं कहती थी की दवाई ले लो? कोई परेशानी तो नहीं होगी? पत्नी के प्रश्न में प्रेमासक्ति थी।


" उन्होंने बड़ी आशा से मेरे पास फ़ोन किया है। गाव से दूर इस शहर में उनका कौन अपना है। ऐसी छोटी मोटी व्याधियों को मै इस फर्ज में बाधा नहीं बनने दे सकता। "


अस्पताल की रक्त बैंक प्रभारी रविवार के दिन डेढ़ बजे रक्तदाता के आगमन से बिलकुल खुश नहीं थी। " ऐसे 'हेल्दी डोनर' को सुबह से नहीं बुला सकते थे? हमारे ड्यूटी ओवर ख़त्म होने को हैं। हमें भी घर जवाब देना पड़ता है। " अपनी अप्रसन्नता प्रकट करते हुए उसने 'डोनर' को टेबल पर लेटने का इशारा किया।


" भाई अशोक मै तुम्हारा एहसान मंद हूँ. आज तक हम मित्र थे, आज से रक्त सम्बन्धी भी हुए. " रक्तदान के बाद तरुण भावुक होकर कह रहा था.


" हे इश्वर! मेरी ऐसी शारीरिक और मानसिक अवस्था बनाये रखना की मै सदैव किसी के काम आ सकूँ. आज जब एक बेटा और बेटी चाहते हुए भी अपनी माँ के लिए रक्तदान नहीं कर सके, वहां मै यह भूमिका निभा पाया, यह सब आपकी ही कृपा है " अस्पताल से लौटकर अशोक अपने इष्ट देव के सम्मुख नतमस्तक था.

गुरुवार, 6 मई 2010

काश!





काफिला मेरा भी होता, आज तब मंजिल के पास,
भोर होते चला होता, मंजिल की जानिब मै काश!

जज्बातों से क्या मिला, मंजिल मिली न रास्ता,
आँखों ने नींदे खोई और हर पल रहा दिल उदास,

एक परिंदा, एक दरिंदा उड़ रहे हैं, साथ साथ,
एक को जीने की ख्वाहिश एक को लहू की प्यास

हिम्मत कर और एक बाजी खेल जाएँ चल 'पवन'
हार जाने से बदतर है, हार मानने का एहसास।