जो ज्वलंत प्रश्न उठाता है.
सोच की पौध सींचता है जो,
दाद भले नहीं पाता है.
अब्दुल्ला और राम की कहता,
संध्या और अजान की कहता,
जो मस्जिद में खुदा और
मंदिर में भगवान् बुलाना चाहता है,
सम्रद्धि शोषण के दम पर ही हो,
ऐसा ही नहीं होता हर बार ,
स्वस्थ विकास से प्रेरणा लेता है,
सिर्फ दोष नहीं गिनवाता है.
चाक के आगे, सूत के धागे,
श्रम जहाँ स्रजनरत हो,
गीत वो यूँ बनता है ज्यों शिल्पी,
स्रष्टि नयी रचाता है.
जिसकी चिंता गिरते मानवीय मूल्य
रिश्तों के टूटते कवच,
घर की दीवारों के अन्दर भी
अब चीरहरण हो जाता है.
भोग्य नहीं नारी जननी है,
बेटी, पत्नी और बहन भी,
नर नहीं नर पिशाच है,
जो उसके बचपन को भरमाता है,
छुआछुत की रेखा गहरी है,
पर प्रेम के आगे कब ठहरी हैं,
राम, सबरी और बाल्मीकि का
कितना सुन्दर नाता है.
सभ्यता के संक्रमण काल में,
चाह उसे ऐसे यौवन की,
दर्द जमाने का बांटे जो,
नहीं भँवरे सा इठलाता है.
यह कंटक पथ गुजरे,
गीत सुखद धरातल पर पहुंचे,
तन्हाई में बैठा 'पवन'
ऐसी दुनिया के ख्वाब रचाता है.