गुरुवार, 6 दिसंबर 2018


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मंगलवार, 27 दिसंबर 2016

दर्द छिपाने का जिनको शऊर मिलता है।
उनके हिस्से में कोई ग़म जरूर मिलता है।

किसी के होठों पे हंसी बारहा नहीं मिलती ,
दिल ज़ब्त करे तब चेहरे पे नूर मिलता है।

बचपना करने का मन है तो कैसी झिझक,
होशमंद चेहरों पे शिकन या गरूर मिलता है।

पास वो होते हैं तो शिकवे गिले भी होते हैं,
रूमानी ईश्क़ किस्सों में या दूर दूर मिलता है।

भला वक़्त है ,हमदर्द भी हैं, तो सहेज कर रखें, 
सफर खुशग़वार कभी, कभी क्रूर मिलता है।

सेहन के 'बर्ड हाउस ' में परिंदा जब नहीं आता ,
मेरे घर लौटने पर घर बहुत मजबूर मिलता है।

                                 - पवन धीमान
                                   २७. १२. २०१६ 

शनिवार, 10 सितंबर 2016

घर

दिवार पत्थर की हैं, संगमरमर की या फिर कच्ची हैं... घर में रिश्तों  की ऊष्मा हो, तो ही अच्छी हैं...

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

गुरुवार, 17 मार्च 2011

यथार्थ


जिंदगी की उड़ान

कारवां मेरा भी होता आज तब मंजिल के पास,
भोर होते चला होता, मंजिल की जानिब मै काश!

जज्बातों से क्या मिला, मंजिल मिली ना रास्ता,
तन्हाई में आंखे रोई, अक्सर रहा ये दिल उदास.

जिन्दगी भर चलता रहा, आज मगर पहुंचा वहां,
रंजो-गम-खुशियाँ कम, उथली जमीं-धुंधला आकाश.

सय्याद के रहमो करम पर कायम है जैसे वजूद,
मुहलत पर टिकी सांस, जिन्दगी चलती फिरती लाश.

एक परिंदा- एक दरिंदा, उड़ रहें हैं साथ-साथ,
एक को जीने की ख्वाहिश, एक को लहू की प्यास.

हिम्मत करके एक बाजी खेल जाएँ चल 'पवन'
हार जाने से बदतर है, हार मानने का एहसास.....

पवन धीमान
+918010369771











सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

अभिष्ट गीत












मुझे अभिष्ट है ऐसा गीत,
जो ज्वलंत प्रश्न उठाता है.
सोच की पौध सींचता है जो,
दाद भले नहीं पाता है.

अब्दुल्ला और  राम की कहता,
संध्या और अजान की कहता,
जो मस्जिद में खुदा और
मंदिर में भगवान् बुलाना चाहता है,

सम्रद्धि शोषण के दम पर ही हो,
ऐसा ही नहीं होता हर बार ,
स्वस्थ विकास से प्रेरणा लेता है,
सिर्फ दोष नहीं गिनवाता है.

चाक के आगे, सूत के धागे,
श्रम जहाँ स्रजनरत हो,
गीत वो यूँ बनता है ज्यों शिल्पी,
स्रष्टि नयी रचाता है.

जिसकी चिंता गिरते मानवीय मूल्य
रिश्तों के टूटते कवच,
घर की दीवारों के अन्दर भी
अब चीरहरण हो जाता है.

भोग्य नहीं नारी जननी है,
बेटी, पत्नी और बहन भी,
नर नहीं नर पिशाच है,
जो उसके बचपन को भरमाता है,

छुआछुत की रेखा गहरी है,
पर प्रेम के आगे कब ठहरी हैं,
राम, सबरी और बाल्मीकि का
कितना सुन्दर नाता है.

सभ्यता के संक्रमण काल में,
चाह उसे ऐसे यौवन की,
दर्द जमाने का बांटे जो,
नहीं भँवरे सा इठलाता है.

यह कंटक पथ गुजरे,
गीत सुखद धरातल पर पहुंचे,
तन्हाई में बैठा 'पवन'
ऐसी दुनिया के ख्वाब रचाता है.



जीवन संघर्ष

मैदाने-जंग में कुछ इस तरह लाचार होता हूँ।
शिकार नहीं करता तो खुद शिकार होता हूँ।

नफरत नहीं कर पाया कभी दुश्मन से भी मै,
मुहब्बत करता हूँ तो भी गुनाहगार होता हूँ।